संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के मुताबिक दुनिया भर में करीब चार अरब लोग साक्षर हैं तो दूसरी ओर आज भी सतहत्तर करोड़ से ज्यादा लोग निरक्षर हैं। निरक्षरों की इस आबादी में दो-तिहाई महिलाएं हैं। लगभग तीन चौथाई निरक्षर आबादी दुनिया के सिर्फ दस देशों में रहती है। इसका मतलब यह है कि हर पांच में से एक व्यक्ति निरक्षर है। दुनिया के लगभग पैंतीस देशों में आज भी साक्षरता दर पचास फीसद से कम है। अगर भारत में साक्षरता की दर की बात करें तो यह वर्ष 2011 में बढ़ कर 74.4 फीसद तक पहुंच गई है। इसमें पुरुषों की साक्षरता दर जहां 82.16 फीसद रही, वहीं महिलाओं की साक्षरता दर 65.46 फीसद थी। लेकिन यह अभी भी विश्व की औसत साक्षरता दर चौरासी फीसद से काफी कम है। यह ठीक है कि वर्तमान में स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति दर सत्तर फीसद जरूर है लेकिन स्कूल छोड़ने की दर भी चालीस फीसद बनी हुई है। भारत में अट्ठाईस करोड़ वयस्क पढ़ना-लिखना नहीं जानते। यह आंकड़ा दुनिया भर की निरक्षर आबादी का सैंतीस फीसद है। देश में साक्षरता दर कम होने का एक कारण शिक्षा प्राप्त लोगों का भी बेरोजगार होना है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। अपने संक्रमण काल से ही भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ा है। ये चुनौतियां और समस्याएं आज भी हमारे सामने हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही भारतीय शिक्षा को लेकर कई तरह की जद्दोजहद चलती रही। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार के लिए अनेक प्रयास किए। यह और बात है कि इन प्रयासों में खामियां भी सामने आई हैं जिन्हें दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट रूप से जिक्र किया गया है कि निरक्षरता के कारण दुनिया भर की सरकारों को सालाना एक सौ उनतीस अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही, दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा पर खर्च किए जाने वाला दस फीसद धन भी बर्बाद हो जाता है, क्योंकि शिक्षा की गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता। इस कारण गरीब देशों में अक्सर चार में से एक बच्चा एक भी वाक्य पूरी तरह नहीं पढ़ सकता। यह ठीक है कि पिछले सात दशकों में भारत ने बहुआयामी सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। लेकिन साक्षरता की बात करें तो इस मामले में आज भी हम कई देशों से पीछे हैं। देश में साक्षरता बढ़ाने के लिए कई दशकों से काम भी हो रहे हैं और कानून भी बनाए गए हैं, लेकिन हकीकत में अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आया। आजादी के बाद भारत में छह से चौदह वर्ष के बच्चों के लिए संविधान में पूर्ण और अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा गया था लेकिन पिछले सात दशकों में भी हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं। भारतीय संसद में वर्ष 2002 में छियासीवां संशोधन अधिनियम पारित हुआ था, जिसके तहत 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया, बावजूद इसके अच्छे नतीजे देखने को नहीं मिले। इतना ही नहीं 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सरकारी सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में नि:शुल्क भोजन देने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। इसके अलावा देश में 1998 में पंद्रह से पैंतीस आयु वर्ग के लोगों के लिए 'राष्ट्रीय साक्षरता मिशन' और 2001 में 'सर्व शिक्षा अभियान' शुरू किया गया था। इसमें वर्ष 2010 तक छह से चौदह साल के सभी बच्चों की आठ साल की शिक्षा पूरी कराने का लक्ष्य था। बाद में संसद ने चार अगस्त 2009 को बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को स्वीकृति दे दी। एक अप्रैल 2010 से लागू हुए इस कानून के तहत छह से 14 आयु वर्ग के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने की जिम्मेदारी राज्यों की तय की गई थी। निशुल्क शिक्षा हर बच्चे का मूल अधिकार होगा। इस कानून को साक्षरता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है। बेहतर साक्षरता दर से जनसंख्या बढ़ोत्तरी, गरीबी और लिंगभेद जैसी चुनौतियों से निपटा जा सकता है। इसके लिए भारत सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं लेकिन इसके बावजूद इसके साक्षरता दर के विकास में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है। साक्षरता दर बढ़ाने के लिए सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील योजना, प्रौढ़ शिक्षा योजना, राजीव गांधी साक्षरता मिशन आदि न जाने कितने अभियान चलाए गए। आज भी केवल केरल को छोड़ दिया जाए तो देश के अन्य राज्यों की हालत औसत है जिसमें से बिहार और उत्तर प्रदेश में तो साक्षरता दर सबसे कम है। वर्ष 1947 में देश की केवल बारह फीसद आबादी ही साक्षर थी। बाद में वर्ष 2011 तक यह आंकड़ा बढ़ कर अड़सठ फीसद हो गया। गौर करने वाली बात यह है कि भारत में यदि साक्षरता की दर ऐसे ही रही तो पूर्ण साक्षरता दर हासिल करने में हमें 2060 तक का इंतजार करना पड़ सकता है।
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